कोंच कस्बे में होने वाली रामलीला चलायमान होती है। लीला में लंका दहन से लेकर लक्ष्मण मेघनाद युद्ध, राम रावण युद्ध सहित सभी लीलाएं चलायमान दिखाई जाती हैं। लीला का मंचन करने के लिए देश के नामी कलाकार कोंच में आते हैं। कस्बे की रामलीला का इतिहास भी पुराना है। यहां की रामलीला के चर्चे दूर दूर के जनपदों तक सुनने को मिलते हैं। इसी प्रसिद्धि के चलते कोंच की रामलीला को एशिया में सर्वोच्च माना गया है। इसमें राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का अभिनय मात्र ब्राह्मण जाति के बालक कर सकते हैं और उन्हें जब तक रामलीला चलती है, परिवार से विलग होकर रामलीला समिति के संरक्षण में कई मर्यादाओं की प्रतिज्ञा में बंधकर रहना पड़ता है। रामलीला के लिए आज तक किसी सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्था से कोई सहायता नहीं ली गई। नगर के लोग ही घर-घर राम, सीता, लक्ष्मण के पहुंचने पर उनके तिलक स्वरूप और आरती उतारते हुए जो न्यौछावर देते हैं उसी से सारी व्यवस्थाओं का संचालन होता है। मुस्लिम नागरिक भी इसमें अर्पण कर सद्भाव की मशाल जलाने में पीछे नहीं रहते। यहां किसी कलाकार को बाहर से बुलाने की परम्परा नहीं है न ही किसी पात्र को कोई पारिश्रमिक दिया जाता है। यहां तक कि मुस्लिम कारीगर, जो कि कई प्रसंगों में पुतले बनाने के अलावा धनुष-वाण तैयार करने में भूमिका निभाते हैं, वे भी कोई मेहनताना नहीं लेते। रामलीला के लिए हर कोई श्रद्धा और पूजा भाव से अपनी सेवा समर्पित करता है।
कोंच कस्बे में होने वाली रामलीला चलायमान होती है। लीला में लंका दहन से लेकर लक्ष्मण मेघनाद युद्ध, राम रावण युद्ध सहित सभी लीलाएं चलायमान दिखाई जाती हैं। लीला का मंचन करने के लिए देश के नामी कलाकार कोंच में आते हैं। कस्बे की रामलीला का इतिहास भी पुराना है। यहां की रामलीला के चर्चे दूर दूर के जनपदों तक सुनने को मिलते हैं। इसी प्रसिद्धि के चलते कोंच की रामलीला को एशिया में सर्वोच्च माना गया है। इसमें राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का अभिनय मात्र ब्राह्मण जाति के बालक कर सकते हैं और उन्हें जब तक रामलीला चलती है, परिवार से विलग होकर रामलीला समिति के संरक्षण में कई मर्यादाओं की प्रतिज्ञा में बंधकर रहना पड़ता है। रामलीला के लिए आज तक किसी सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्था से कोई सहायता नहीं ली गई। नगर के लोग ही घर-घर राम, सीता, लक्ष्मण के पहुंचने पर उनके तिलक स्वरूप और आरती उतारते हुए जो न्यौछावर देते हैं उसी से सारी व्यवस्थाओं का संचालन होता है। मुस्लिम नागरिक भी इसमें अर्पण कर सद्भाव की मशाल जलाने में पीछे नहीं रहते। यहां किसी कलाकार को बाहर से बुलाने की परम्परा नहीं है न ही किसी पात्र को कोई पारिश्रमिक दिया जाता है। यहां तक कि मुस्लिम कारीगर, जो कि कई प्रसंगों में पुतले बनाने के अलावा धनुष-वाण तैयार करने में भूमिका निभाते हैं, वे भी कोई मेहनताना नहीं लेते। रामलीला के लिए हर कोई श्रद्धा और पूजा भाव से अपनी सेवा समर्पित करता है।