नारी-चेतना के एक स्वस्थ स्वरूप और प्राचीन भारतीय समाज में नारी की एक गरिमामय स्थिति के साक्ष्य हमारे साहित्य में मौजूद हैं। स्त्री के सन्दर्भ में समाज की अधोगति के तेज़ प्रवाह से मुकाबले के ही नहीं, उसमें बह पड़ने के प्रसंग भी हमारे साहित्येतिहास में कम नहीं हैं। नारी-चेतना और उसके सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रभावों, प्रतिक्रियाओं के आकलन की, भारतीय सन्दर्भ में एक सतत आवश्यकता बन गयी है। इसलिए भी कि एक अति से मुक्ति के उत्साह में दूसरी अति तक पहुँच जाने के जो ख़तरे होते हैं, उनकी पहचान निरन्तर होती रहे। इसलिए भी कि उस अद्यतन विकास का भी आकलन-परीक्षण हो सके, जिसकी परिणतियाँ दिल्ली के निर्भया काण्ड या मुम्बई के शक्ति मिल कम्पाउण्ड जैसी दरिन्दगियों के रूप में प्रगत समाज की हैवानियत का नमूना बनकर कानून और व्यवस्था के ही नहीं, मनुष्यता के सामने भी गम्भीर प्रश्न बनकर खड़ी हो गयी हैं। इसलिए भी कि भोग को चरम साध्य के रूप में स्वीकार करने वाले बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के दौर में स्त्री-विमर्श की पश्चिमी अवधारणाओं से भारतीय समाज में सम्बन्धों की सूत्रधार के रूप में, चेतना के स्पन्दन के स्त्रोत के रूप में स्थापित स्त्री की सत्ता को जो चुनौतियाँ मिल रही हैं, उनका सामना किया जा सके। इसलिए भी कि स्त्री-स्वातन्त्र्य का मतलब स्त्री को अकेला कर देने की साजिशों में न बदल पाये।
नारी-चेतना के एक स्वस्थ स्वरूप और प्राचीन भारतीय समाज में नारी की एक गरिमामय स्थिति के साक्ष्य हमारे साहित्य में मौजूद हैं। स्त्री के सन्दर्भ में समाज की अधोगति के तेज़ प्रवाह से मुकाबले के ही नहीं, उसमें बह पड़ने के प्रसंग भी हमारे साहित्येतिहास में कम नहीं हैं। नारी-चेतना और उसके सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रभावों, प्रतिक्रियाओं के आकलन की, भारतीय सन्दर्भ में एक सतत आवश्यकता बन गयी है। इसलिए भी कि एक अति से मुक्ति के उत्साह में दूसरी अति तक पहुँच जाने के जो ख़तरे होते हैं, उनकी पहचान निरन्तर होती रहे। इसलिए भी कि उस अद्यतन विकास का भी आकलन-परीक्षण हो सके, जिसकी परिणतियाँ दिल्ली के निर्भया काण्ड या मुम्बई के शक्ति मिल कम्पाउण्ड जैसी दरिन्दगियों के रूप में प्रगत समाज की हैवानियत का नमूना बनकर कानून और व्यवस्था के ही नहीं, मनुष्यता के सामने भी गम्भीर प्रश्न बनकर खड़ी हो गयी हैं। इसलिए भी कि भोग को चरम साध्य के रूप में स्वीकार करने वाले बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के दौर में स्त्री-विमर्श की पश्चिमी अवधारणाओं से भारतीय समाज में सम्बन्धों की सूत्रधार के रूप में, चेतना के स्पन्दन के स्त्रोत के रूप में स्थापित स्त्री की सत्ता को जो चुनौतियाँ मिल रही हैं, उनका सामना किया जा सके। इसलिए भी कि स्त्री-स्वातन्त्र्य का मतलब स्त्री को अकेला कर देने की साजिशों में न बदल पाये।